Monday, November 5, 2012

कल चौदहवीं की रात थी :'इन्शा'


कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा । 
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा ।

हम भी वहीं मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किए,
हम हँस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था परदा तेरा ।

इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटी महिफ़लें,
हर शख़्स तेरा नाम ले, हर शख़्स दीवाना तेरा ।

कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर,
जंगल तेरे, पर्वत तेरे, बस्ती तेरी, सहरा तेरा ।

तू बेवफ़ा तू मेहरबाँ हम और तुझ से बद-गुमाँ,
हम ने तो पूछा था ज़रा ये वक्त क्यूँ ठहरा तेरा ।

हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र,
रस्ता कभी रोका तेरा दामन कभी थामा तेरा ।

दो अश्क जाने किस लिए, पलकों पे आ कर टिक गए,
अल्ताफ़ की बारिश तेरी अक्राम का दरिया तेरा ।

हाँ हाँ, तेरी सूरत हँसी, लेकिन तू ऐसा भी नहीं,
इस शख़्स के अश‍आर से, शोहरा हुआ क्या-क्या तेरा ।

बेशक, उसी का दोष है, कहता नहीं ख़ामोश है,
तू आप कर ऐसी दवा बीमार हो अच्छा तेरा ।

बेदर्द, सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल,
आशिक़ तेरा, रुसवा तेरा, शायर तेरा, 'इन्शा' तेरा ।

Ibn-e-Insha (Punjabi, Urdu: ابن انشاء born Sher Muhammad Khan شیر محمد خان) on 15 June 1927 died 11 January 1978,  was a PakistaniLeftist Urdu poet, humorist, travelogue writer and columnist. Along with his poetry, he was regarded one of the best humorists of Urdu.  His poetry has a distinctive diction laced with language reminiscent of Amir Khusro in its use of words and construction that is usually heard in the more earthy dialects of the Hindi-Urdu complex of languages, and his forms and poetic style is an influence on generations of young poets.  


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