Sunday, December 2, 2012

देख तो दिल कि जाँ से उठता है: मीर तकी मीर



देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल-जले की है ये फलक

शोला इक सुबह याँ से उठता है

खाना-ऐ-दिल से ज़िन्हार न जा

कोई ऐसे मकान से उठता है

नाला सर खेंचता है जब मेरा

शोर एक आसमान से उठता है

लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ

इक आशोब वां से उठता है

सुध ले घर की भी शोला-ऐ-आवाज़

दूद कुछ आशियाँ से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उस को

जो तेरे आस्तान से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम

जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है

बोझ कब नातावां से उठता है .

शब्दार्थ - आशोब -चीत्कार, आर्तनाद ।



dekh to dil ki jaa.N se uThataa hai 

 to dil ki jaa.N se uThataa hai 
ye dhuaa.N saa kahaa.N se uThataa hai


gor kis dil-jale kii hai ye falak
sholaa ik subah yaa.N se uThataa hai
[gor=grave/tomb] 

Khaana-e-dil se zi.nhaar na jaa 
koii aise makaa.N se uThataa hai 

naalaa sar khe.nchataa hai jab meraa 
shor ek aasmaa.N se uThataa hai

la.Datii hai us kii chashm-e-shoKh jahaa.N 
ek aashob waa.N se uThataa hai

sudh le ghar kii bhii shola-e-aawaaz
duud kuchh aashiyaa.N se uThataa hai

baiThane kaun de hai phir us ko
jo tere aastaa.N se uThataa hai

yuu.N uThe aah us galii se ham
jaise koii jahaa.N se uThataa hai

ishq ik 'Meer' bhaarii paththar hai
bojh kab naatavaa.N se uThataa hai
[naatavaa.N=weak]




“मीर के शेर का अह्‌वाल कहूं क्या ग़ालिब
जिस का दीवान कम अज़-गुलशन-ए कश्मीर नही”
मोहम्मद मीर उर्फ मीर तकी "मीर" (1723 - 1810) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर का जन्म आगरा मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देख रेख मे बीता। उनके जीवन में प्यार और करुणा के महत्त्व के प्रति नजरिये का, मीर के जीवन पे गहरा प्रभाव पड़ा। इसकी झलक उनके शेरो मे भी देखने को मिलती है। पिता के मरणोपरांत ११ की वय मे वो आगरा छोड़ कर दिल्ली आ गये। दिल्ली आ कर उन्होने अपनी पढाई पूरी की और शाही शायर बन गये। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ-उद-दुलाह के दरबार मे लखनऊ चले गये। अपनी ज़िन्दगी के बाकी दिन उन्होने लखनऊ मे ही गुजारे।
अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। इस त्रासदी की व्यथा उनके कलामो मे दिखती है, अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था-
हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

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