Monday, March 17, 2014

इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ: नज़ीर बनारसी










इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ

जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ

कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर[1]
 हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ

सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शोकेस में चुपचाप खड़ा हूँ

वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ
, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ

मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ कि मैं दरिया से जुदा हूँ

हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूलह[2]
 पे चढ़ा हूँ

दुनिया से निराली है
'नज़ीर' अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ
शब्दार्थ:
1.   व्यापारी, सौदागर
2.   सूली

जन्म: 25 नवंबर 1909, निधन: 23 मार्च 1996
 जन्म स्थान: बनारस, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ: गंगो जमन, जवाहर से लाल तक, गुलामी से आजादी तक, चेतना के स्वर, किताबे गजल, राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले
विविध: राजकमल प्रकाशन से मूलचंद सोनकर के संपादकत्व में 'नजीर बनारसी की शायरी' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है

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