Thursday, July 16, 2015
फ़ासले ऐसे भी होंगे :अदीम हाशमी
फ़ासले ऐसे भी होंगे यह कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वह मेरा न था
सामने बैठा था मेरे और वह मेरा न था
वह कि ख़ुश्बू की तरह फैला था मेरे चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
रात भर पिछली-सी आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था
मैं तिरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा
सारी दुनिया में मगर कोई तिरे जैसा न था
सारी दुनिया में मगर कोई तिरे जैसा न था
आज मिलने की ख़ुशी में सिर्फ़ मैं जागा नहीं
तेरी आँखों से भी लगता है कि तू सोया न था
तेरी आँखों से भी लगता है कि तू सोया न था
ये सभी वीरानियाँ उसके जुदा होने से थीं
आँख धुन्धलायी हुई थी शहर धुन्धलाया न था
आँख धुन्धलायी हुई थी शहर धुन्धलाया न था
सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेरे-लब
एक पत्थर था ख़ामोशी का कि जो हटता न था
एक पत्थर था ख़ामोशी का कि जो हटता न था
याद करके और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
मस्लहत ने अजनबी हमको बनाया था 'अदीम'
वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था
वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था
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