Saturday, December 13, 2014

हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर: फ़िराक गोरखपुरी





















हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो
वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो

जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे
उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो

जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में
ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो

पहरों-पहरों तक ये दुनिया भूला सपना बन जाए है
मैं तो सरासर खो जाऊं हूँ याद इतना क्यों आओ हो

झूठी शिकायत भी जो करूँ हूँ पलक दीप जल जाए हैं
तुमको छेड़े भी क्या तुम तो हँसी-हँसी में रो दो हो

एक शख्स के मर जाये से क्या हो जाये है लेकिन
हम जैसे कम होये हैं पैदा पछताओगे देखो हो

मेरे नग्मे किसके लिए हैं खुद मुझको मालूम नहीं
 
कभी न पूछो ये शायर से तुम किसका गुण गाओ हो

अकसर गहरी सोच में उनको खोया-खोया पावें हैं
 
अब है फ़िराक़ का कुछ रोज़ो से जो आलम क्या पूछो हो