Thursday, November 6, 2014

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो : बशीर बद्र















कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो 
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो 

 वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त  भी अता  करे 

तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो 

 मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब  है चांदनी 

न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो 

 ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चांदनी

 न बुझे ख़राबे की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो 

 वो फ़िराक़ हो या विसाल  हो, तेरी याद महकेगी एक दिन 

वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो 

 कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिल-ओ-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं 

मगर उस नगर में न क़ैद कर जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो 

 कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के 

यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो 

 मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ 

तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो 



 शब्दार्थ: 
1. नवाज़=कृतार्थ कर दे 
2. सिफ़त=सदगुण 
3. अता=प्रदान करे 
4. महव-ए-ख़्वाब=सपनों में खोई हुई 
5. फ़िराक़=विरह 
6. विसाल=मिलन 
7. हबीब=प्रिय